यह बात सतलोक आश्रम चलानेवाले रामपाल के
बहाने कह रहा हूं। याद करें, जिस
दिन रामपाल को कानूनी रूप से देशद्रोही ठहरा कारावास मिला, उसी दिन केन्द्रीय
अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) के निदेशक रंजीत सिन्हा को सर्वोच्च न्यायालय ने 2जी
स्पेक्ट्रम विषय की जांच से अलग कर दिया। देखा व समझा जाए तो रामपाल से बड़ा
अपराध रंजीत सिन्हा का है, पर
उन्हें कोई कानूनी दण्ड नहीं मिला।
ऐसे
प्रशासकों के कारण ही देश में गरीबों की बड़ी संख्या बढ़ रही है और
परिणामस्वरूप बुरी तरह पीड़ित व प्रताड़ित जनसमूह अपने जीवन का कल्याणकारी निदान रामपाल
जैसे लोगों की शरण में जा ढूंढने को विवश होता है।
सिन्हा
पर आरोप है कि उन्होंने बहुत बड़े अवैध धन लेन-देन के आधार 2जी स्पेक्ट्रम विषय
की साफ-सुथरी सरकारी जांच में व्यवधान डाले। यह अवैध धनराशि इतनी बड़ी है कि इससे लाखों
लोगों को त्वरित रोजगार प्रदान किया जा सकता है। इस धनराशि का रोजगारपरक निवेश ना
भी किया जाए, इसे
एक निश्चित अनुपात में जरूरतमंद लोगों में बांट दिया जाए, और लोग अपने-अपने हिस्से
आई राशि को पांच साल के लिए बैंक में जमा कर दें, तो भी लोगों की माहवार आमदनी पांच-दस
हजार रूपए हो सकती है। इस प्रकार वैध धनराशि लोगों के व्यक्तिगत अधिकार में होते
हुए भी बैंकों के माध्यम से सरकारी कामों में भी निवेशित हो सकती है। इससे बेहतर आर्थिक
आयोजन क्या हो सकता है! आर्थिक आत्मदृष्टि जाग्रत कर कोई भी
शासक इस योजना को कार्यरूप दे सकता है। लेकिन नहीं, अभी दूर तक इस प्रकार की कोई कार्ययोजना
भारतीय लोकजीवन में उभरती हुई नहीं दिखती।
बेरोजगार, जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं
के लिए भटकते और साठ साल पहले रोपे गए औद्योगिक प्रगति के विचार से अपने ग्रामीण-आत्मनिर्भर
जीवन से भी विलग कर दिए गए लोग अपना जीवन कैसे जी रहे हैं, क्या इसकी मानवीय
अनुभूति सरकार, कानून
या शासन-प्रशासन को है?
मूलभूत सुख-सुविधाओं के अलावा विलासिता का सुरक्षित जीवन जी रहे प्रमुख राजकीय
प्रतिनिधि या न्यायविद हों या प्रशासनिक अधिकारी अथवा मीडिया के विश्लेषणकर्ता
हों, जब
तक वे सब गरीबी व विपन्नता को अपने शरीर व मन से नहीं झेलेंगे, तब तक वे गरीबों की
मन:स्थिति को
कैसे समझ सकते हैं!
सन्
2006 में आर्यसमाजियों के साथ रामपाल के समर्थकों की झड़प में एक युवक मारा गया।
प्रथम दृष्टि में रामपाल का इस दुर्घटना से क्या जुड़ाव होता है, कुछ भी नहीं। तब भी
पुलिस, प्रशासन
से लेकर न्यायालय सभी उसे कानून के उल्लंघन का दोषी ठहरा न्यायालय में उपस्थित
होने को कहते रहे। वह उपस्थित नहीं हुआ तो कानून का उल्लंघन माना गया। एक व्यक्ति
जो सरकारी मानसिकता से उबरने के लिए सिंचाई विभाग की सरकारी नौकरी छोड़ अध्यात्म
पथ अंगीकार करने की इच्छा से सतलोक आश्रम तक की वर्तमान वीभत्स स्थिति तक पहुंचा, क्या इसके लिए वह
अकेला दोषी है?
मीडिया
रामपाल को धार्मिक ठग और उसके हजारों अनुयायियों को अंधभक्त, मूर्ख व अज्ञानी
बता रहा है। उसके आश्रम पर कब्जा करने के बाद पुलिस को वहां जांच में जो कुछ मिल
रहा है, मीडिया
उस पर आश्चर्यविमूढ़ हो रहा है। कोई समाचारपत्र लिखता है कि आश्रम में कंडोम मिले, तो कोई वहां अवैध
वस्तुओं के होने की पुष्टि करता है। इलेक्ट्रानिक मीडिया में प्रसारित और प्रिंट
मीडिया में प्रकाशित अधिकांश विज्ञापनों में महिलाओं के अंग उभार दिखाना और
विज्ञापित वस्तुओं को खरीदने का अनुरोध करना क्या दूसरे ग्रह के लोगों के लिए है? जब यह सब कुछ धरती
के लोगों के लिए ही है, तो
धरती पर कहीं कंडोम मिलने पर इतना अचरच करना अपरिपक्व मानसिकता को दर्शाता है। जैसे
पेट के लिए सभी को खाना चाहिए, वैसे
ही संभोग भी सभी के लिए एक आवश्यकता है। रामपाल जैसे बाबा अगर संभोगीय स्थिति में
नहीं भी होते हों, पर
उसके आश्रम में तैनात सेवाकर्मियों को तो संभोग से रोका नहीं जा सकता। तो अगर वहां
आश्रम में सुरक्षित यौन सम्बन्धों के निरोधक मिल गए तो क्या बड़ी बात है! और ऐसे निरोधकों पर
इतनी हायतौबा क्यों, जब
यह व्यापार, रोजगार, और सामान्य जीवन की
एक जरूरत है तो?
और हम ऐसी उम्मीद ही क्यों कर लेते हैं कि वर्तमान सुख-सुविधाओं की उन्नत व्यवस्थाओं
के बीच बैठा बाबा शुद्ध व सात्विक बाबा ही है!
आश्रम में मिलनेवाली वस्तुओं पर तब इतना हल्ला क्यों? यह भी विचारणीय है
कि जिन आधुनिक व्यवस्थाओं को रखने और उनका उपभोग करने के लिए बाबा को दोषी कहा
जा रहा है, उनको
तैयार करनवाले क्या दूध के धुले हुए हैं?
रामपाल भी पहले आधुनिक व्यवस्थाओं का प्रबन्ध करनेवाला एक छोटा सरकारी घटक था।
बाद में अध्यात्म के नाम पर वह भटक जाता है और कुछ लोग उसका अनुसरण करने लगते
हैं, तो
इसमें रामपाल व उसके अंधभक्तों के अलावा क्या कोई और व्यवस्था दोषी नहीं है? किसी के द्वारा एक
गलत रास्ते का चयन उससे पहले बने एक या अधिक गलत रास्तों के आधार पर ही होता है।
अगर
लोगों के हवाले से शासन-प्रशासन चाहता है कि झूठे बाबा, अंधभक्ति या
ठगाधारित धार्मिकता खत्म हो, तो
इसके लिए सबसे पहले और जरूरी काम शासन-प्रशासन को ही करने होंगे। पहला काम, जनसंख्या पर नियन्त्रण।
दूसरा, नियन्त्रण
के बाद की जनसंख्या को जीवन की आधारभूत आवश्यकताओं की सुगम आपूर्ति। तीसरा, पारंपरिक जीवन की व्यवस्था
बनाने के प्रति एक ठोस कार्ययोजना।
आधुनिक
जीवन, जिसके
अन्दर समाज व सरकार के मिश्रण से तैयार उपभोग की स्थितियां आत्मघात और आत्मभ्रान्ति
ही दे रही हैं, उसमें
परिवर्तन पुरातन ग्राम-स्वराज व्यवस्था ही कर सकती है। भले इस व्यवस्था को
बनाना आज सपना लग रहा है, लेकिन
यह याद रहे कि यही आनंदपूर्ण जीवन की सर्वश्रेष्ठ आधारशिला होगी।
जब
जीवन का धर्म-क्षेत्र तक बदनामी झेल रहा हो,
तब यह अनुमान भयग्रस्त ही करेगा कि अब जीवन में बचा ही क्या
है। लेकिन सच्चे मानुष तब भी हार नहीं मानते। उन्हें फिर भी एक आस कहीं न कहीं
नजर आती ही है।
विकेश कुमार बडोला