जिंदगी का मौसम
दैनिक ट्रिब्यून में November - 25 - 2014 को प्रकाशित
कहानी
विकेश
कुमार बडोला
 |
चित्रांकन
संदीप जोशी |
हवा की लहरें कक्ष की
एक-एक चीज को सजीव किए हुए थीं। हवा के मधुर स्पर्श से कक्ष में रखी हरेक वस्तु
हिलती-डुलती और धीमे-धीमे उड़ती। हवा निर्जीव चीजों में भी जान भरती प्रतीत
होती।
प्रशान्त
कक्ष की खिड़की से बाहर दूर स्थित पेड़ों को देखता रहा। हवा के वेग से हिलते पेड़ अद्भुत
लगते। पक्षियों के दल गगन में उड़ रहे थे। नीला आकाश श्वेत बादलों के
टुकड़ों से सजा हुआ था। प्राकृतिक अनुभव तन-मन को स्वस्थ और प्रसन्न कर रहे
थे। प्रशान्त ने मौसम के प्रभाव में नीलिमा को प्रेमपूर्वक छेड़ा, ‘आज का दिन एकदम तुम्हारे
मुखड़े की तरह दमक रहा है। पांच साल पहले जब
हमारी शादी नहीं हुई थी, जब मैं तुम्हें देखने आया था…याद है! तुम्हारा
चेहरा कितना कांतिमय था! तुम्हारे अंग-प्रत्यंग कितने दीप्त थे! आज
के वातावरण को बहुत-बहुत धन्यवाद, जिसने हमारे स्वर्णिम अतीत को नए
अहसासों और रंगों के साथ एक बार फिर सामने रख दिया है।’
कुछ क्षण रुककर
नीलिमा बोली,
‘तुम्हारे
पास तो कुछ काम है नहीं। यूं ही खाली बैठे-बैठे
बेकार की बातें सोचते रहते हो। कुछ मदद कर लिया करो काम में मेरी। मेरी कमर
के दो टुकड़े हो रहे हैं।’
प्रशान्त को पता था
कि
नीलिमा
ने जो कुछ कहा,
वह
केवल बाहरी से मन से कहा। प्रभावित तो वह भी थी मौसम से। काम करते-करते
वह रसोई की खिड़की से आसमान, पेड़-पौधों, पक्षियों को निहार रही थी। एक बार
तो वह तेजी से आती ठंडी हवा की तरफ आंखें बन्द कर खड़ी हो गई। जैसे हवा
को नथुनों से अपने अन्दर भर रही हो। प्रशान्त की बात का हृदय में समर्थन
करके वह उसे चिढ़ाने के लिए मुंह बनाती और उसे ताने मारने लगती। प्रशान्त
को उसकी यह आदत अच्छी लगती।
नीलिमा की इस आदत से
और
ज्यादा
प्रसन्न होने के लिए उसने उसे उकसाया, ‘तुम तो मूर्ख हो।
हमेशा
बेकार
की बातें करती हो। अरे देखो तो सही मौसम को। तुम्हें स्वर्ग में होने की अनुभूति न हो
तो कहना।’
प्रशान्त पर पानी के
छींटे फेंकते हुए वह धीरे से बुदबुदाई, ‘मौसम को देखने के
अलावा तुम्हें और कुछ सूझता है?’
‘सूझता है न, सुन्दर विचार, अच्छी-अच्छी बातें।
जैसे आज मैं मौसम के असर से इतना भावुक हूं कि तुम से मेरा लगाव कई गुणा बढ़ गया है।
तुम्हारी अनदेखी, डांट, कड़वी बातें भी मुझे अच्छी लगने लगी हैं।’
नीलिमा प्रशान्त के पास आकर बैठ गई, ‘पता नहीं आज स्कूल
में बच्ची क्या कर रही होगी! बहुत संकोची लड़की है।
छोटी सी बात को भी दिल से लगा लेती है। सोनल को देखो, वह तो मेडम की डांट-पिटाई
खाने के बाद भी मस्त रहती है। न रोती है, न सोचती है। आज की
दुनिया में यह लड़की कैसे खपेगी! हम अमीर होते तो मैं अपनी बिटिया को कभी भी ऐसे
स्कूलों में नहीं भेजती। उसके पढ़ने की व्यवस्था घर पर ही करवाती।
सरकार,
स्कूल
वाले सब के सब बस पैसे का हेर-फेर जानते हैं। बच्चों से तो
इन्हें कोई मतलब है ही नहीं।’
सुहावने मौसम में
डूबा
हुआ
प्रशान्त पत्नी की बात से दुखी हो गया। उसने महसूस किया कि जब से बच्ची स्कूल जाने
लगी है,
नीलिमा
का व्यवहार चिंतनीय हो गया है। वह हर समय तनाव व चिन्ता में
घुलती रहती है। उसने कितनी बार उसे समझाया कि होनी पर जब हमारा वश नहीं
है तो उसे लेकर दुखी होने का क्या मतलब। यह विकराल समय, कमजोर सरकारी व्यवस्था
और इस कारण लुंजपुंज हुई स्कूली व्यवस्था और समाज का इन
दुर्व्यवस्थाओं के प्रति उदासीन रवैया–इस पर नीलिमा और मेरे परेशान होने से क्या
फर्क पड़ेगा। एक व्यक्ति के प्रयास से ये दिक्कतें कभी भी खत्म नहीं हो
सकतीं। ऐसी दिक्कतों से शान्त व सन्तुलित तरीके से ही मुकाबला किया जा
सकता है। और शान्ति व सन्तुलन प्रकृति से प्राप्त ऊर्जा से ही मिल
पाएंगे। इसीलिए वह जब-तब प्रकृति की शरण में चला जाता है। और आज उसने नीलिमा को
भी प्रकृति की महिमा के प्रति केंद्रित करने का प्रयास किया था।
लेकिन वह तो गृहस्थ जीवन की समस्याओं में बुरी तरह फंसी हुई है। उसे
प्राकृतिक उजाला नजर ही नहीं आता। उसकी अन्तर्दृष्टि प्रकृति प्रेमी हो ही नहीं पा
रही। वह मौसम के प्रभाव में स्वच्छंद तो होती है, पर केवल कुछ क्षणों
के लिए।
‘तुम कहां खो गए? वाकई आज का मौसम तो
बहुत सुहावना है।’
‘हां नीलिमा…। प्रकृति की गोद में
खुद को रखकर शान्ति तो मिलती है, पर तुम्हारी बातों को सुनकर मुझे भी हमारे जीवन के सम्बन्ध में
कई बातें
चुभने
लगी हैं। जीवन में एक शान्तिमय ठहराव नहीं आ पा रहा है।’
‘कैसी, कौन सी बातें?’
‘बहनों की शादी हो गई
है। मां-पिताजी गांव में अकेले हैं। बुढ़ापा उन्हें अपने में समेटने लगा
है। कितनी बार कहा उनसे चलो मेरे साथ। अपनी औकात के हिसाब से तुम्हें
डॉक्टर से चैक करवा लेता हूं। एक टुकड़ा जमीन है। उसे बनवा लेते हैं। वहीं
मिलकर रहेंगे सब। बुढ़ापे में उन्हें हमारी जरूरत है तो हमें भी अपनी
बच्ची के लिए दादा-दादी की बहुत जरूरत है। वे ये भी तो नहीं कहते कि तुम
गांव आकर रहो। क्या हम कभी उनकी सेवा नहीं कर पाएंगे? ऐसे तो समय निकला जा
रहा है। मैं भी दो-एक साल में चालीस पार कर लूंगा। बुढ़ापे के लक्षण और
कमजोरी शहर की जिन्दगी ने वक्त से पहले ही हमें दे दिए हैं। ऐसी हालत
में हम अपने मां-बाप की सेवा करेंगे या खुद को दुरस्त रखेंगे?’
‘सास-ससुर जी आपस में
भी तो कुछ बात नहीं करते परिवार के भविष्य की।’
‘हां…! नीलिमा मुझे तो समझ
नहीं आ रहा। क्या करूं।’
‘तुम्हारा भाई प्रवेश
भी तो कहीं नौकरी नहीं कर पा रहा है टिककर। उसकी चिंता भी उन्हें रहती है।’
‘केवल यही चिन्ता तो
नहीं है अपने जीवन में। किराए पर रहते-रहते पांच साल गुजर गए हैं। नौकरी
से कोई खास अपेक्षा नहीं है। वेतन समय पर मिल रहा है, वही बहुत है।’
‘बिटिया क्या अकेली
रहेगी?
भाई
या बहन कोई एक तो उसके साथ होना ही चाहिए।’
‘पहले ही क्या कम
परेशानियां हैं,
जो
तुम एक और जीवन को इस दुनिया में सताने के लिए लाने की
इच्छा पाले हुई हो। फैमिली बैकअप कुछ नहीं है। प्राइवेट नौकरी है।
ऐसे में कैसे नीलिमा…!’
प्रशान्त को लगा उन
जैसे दम्पति को अब प्रकृति के सच्चे साथ के सहारे ही जीवन काटना है।
उसने प्रेम से पत्नी
का माथा चूमा,
‘नीलिमा
जीवन एक ही बार मिलता है। मरने के बाद कोई भी वापस यह बताने नहीं आया कि
वह कहां गया। जब तक हममें एक-दूसरे को देखने की शक्ति है, हमें प्रेम से व
निश्चिन्त होकर रहना चाहिए। गृहस्थ की समस्याओं का मिलकर हल ढ़ूंढ़ना
चाहिए। देखो न आज प्रकृति कितनी मेहरबान है हम पर! भादो की गर्मी में ऐसा मौसम
रोज थोड़े न होता है। आओ इस मौसम को अपने अन्दर कूट-कूट कर भर लें। ताकि
आने वाली
मौसमीय
कठिनाइयों और सांसारिक समस्याओं से युद्ध करने के लिए यह हमें शक्तिशाली बना सके।’
नीलिमा को अपने आप
में एक विराट परिवर्तन महसूस हुआ और वह प्रशान्त के साथ
प्रकृति को भी अपनी बांहों में भरने लगी।