पारम्परिक तरीके से विचलित दुनिया में आधुनिक सुविधाएं और सुरक्षा बहुत बड़ी बात
है। कोई कितना भी बड़ा त्यागी हो, उसे भी किसी न किसी रूप में अपने शरीर की रक्षा के लिए आधुनिकता का थोड़ा बहुत
सहारा तो चाहिए ही। संवेदना के स्तर पर यह आकलन हो सकता है कि आज की अधिकांश
मानवीय जीवन स्थितियां जिन कारणों से परेशानी में फंसीं, उनका निर्माण परम्परा एवं प्रकृति को नष्टकर बनाए गए
भौतिक आवरण ने ही किया है।
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हिंसा के बाद जीवित चेहरों पर ऐसे ही प्रश्नचिन्ह होंगे |
पुरातन काल में आदमी उन वस्तुओं
या सुविधाओं पर आश्रित रहा, जो प्रकृति में विद्यमान थीं। लोगों ने शरीर पर वनस्पतियां लपेटकर जीवनयापन
किया। भूख लगी तो प्राकृतिक रूप से उपलब्ध खाद्य पदार्थों की पहचान करी और उनसे
भूख को तृप्त किया। कई मानव पीढ़ियां तो इसी स्थिति में पूरा जीवन गुजार गईं। तब
से लेकर आज तक मानवीय इच्छाओं के कारण अनगिनत जीवनोपयोगी वस्तुओं का अविष्कार
हुआ। साथ ही जितनी ज्यादा जीवनोपयोगी वस्तुओं का अविष्कार होता रहा, मानव की इच्छाएं भी उसी गति से बढ़ती रहीं। आज हम वस्तुओं, सामग्रियों तथा सुविधाओं के शिखर पर बैठे हुए हैं। ध्यान
से सोचकर पता चलता है कि सुविधाओं के ताने-बाने ने मानवीयता की नैसर्गिक प्रवृत्ति
को बहुत ज्यादा कमजोर किया है। जबकि इसकी मानवीय जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यकता
है। सुविधाओं को जुटाने के प्रयास जब व्यापार में बदल जाएं, व्यापार में गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा से मूलभूत सामग्रियों में जानलेवा मिलावट हो रही हो, प्रकृति प्रदत्त मानवीय स्वास्थ्य आधुनिक व्यवस्थाओं
के नाम पर रोगग्रस्तता ग्रहण करता जाए और यह सब क्रियाकलाप पूरी दुनिया में इतने
गड्डमड्ड हो जाएं कि कोई भी शासन प्रणाली इसे बदलकर ठीक न कर पाए तो फिर आखिर में क्या
उपाय बचता है, जिसे अपनाकर
जीवन की इन सबसे बड़ी चुनौतियों से निपटा जा सके।
यह प्रश्न वैसे तो देश-दुनिया की
प्रतिदिन की दुर्घटनाओं के बाद हर समय मन-मस्तिष्क में कौंधता रहता है, पर आज (१९ जून, २०१४) के एक समाचार ने इस पर गहराई से सोचने के लिए विवश
कर दिया। समाचार के अनुसार एक सुविधासम्पन्न व्यक्ति ने अपनी पत्नी, साले और श्वसुर की हत्या कर दी। आमतौर पर हिंसा, अपराध आदि के लिए वही व्यक्ति दुष्प्रेरित होता है जो
अभाव में हो। गरीबी में दिन काट रहा व्यक्ति यदि कोई चीज पाने के लिए ऐसे अपराध
करता हो तो बात समझ में आती है, पर घर-गाड़ी-रोजगार-गृहस्थ सम्पन्न कोई व्यक्ति किसी सनक में अपने ससुराल
जाकर अपनी पत्नी सहित साले और श्वसुर को जान से मारकर खुद को भी जान से मार दे
तो इसे किस रूप में परिभाषित किया जाएगा।
सुविधाओं के शिखर पर विराजमान मानव की नैसर्गिक मानवीयता का
ह्रास इसी रूप में हो रहा है। अगर खुद सहित तीन लोगों को मारनेवाला यह व्यक्ति
जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की कमियों से नहीं जूझ रहा था तो उसका यह आत्मघात
आखिर समाज को क्या संदेश देता है? अगर वह अपनी पत्नी से किसी प्रकार से असन्तुष्ट था या अपने
ससुरालियों की किसी बात से सहमत नहीं था या अपने पूरे परिवार और सम्बन्धियों के किसी
निर्णय से आहत था तो इसका हल मौत के अलावा क्या किसी और रूप में नहीं निकल सकता था? ऐसे व्यक्ति को सामग्री और सुविधा से लादनेवाला तन्त्र क्या
उसे जीवन सम्यक दृष्टिकोण अपनाने की कोई शिक्षा नहीं दे सकता था? क्या उसे मानवता के सरोकारों से अभिसिंचित नहीं कर सकता था? यदि ऐसा नहीं हो सकता और मनुष्य की दौड़ तमाम वस्तुओं को प्राप्त
करने के बाद भी जारी रहती है तो निश्चित है मनुष्य को मशीन बनने से कोई नहीं रोक सकता
और मशीन से यह आशा करना कि वह हमसे प्रेम करेगी, व्यर्थ है। पल-पल मशीनी होते मानव से हिंसा के अतिरिक्त और
किसी प्रतिक्रिया की उम्मीद की भी नहीं जा सकती।