कभी-कभी बचपन की यादें स्मृति-पटल पर कौंध जाती हैं। तब अपना वर्तमान व्यक्तित्व दु:खद और हास्यास्पद लगने लगता है। स्वयं से घृणा और समाज से विरक्ति होने लगती है। जीवन के छत्तीसवें वर्ष में बालपन की स्मृतियों का आगमन कई कारणों से हुआ। सर्वप्रथम तो मैं पिछले तीन दिनों से टूटे-टूटे शरीर और सुन्न मस्तिष्क के साथ शयन खटोले से चिपका हुआ हूँ। बसंत की छवि से अभिभूत हो कुछ लिखने का अवसर आधे माघ-आधे फाल्गुन तक बीमार पड़े रहने के कारण हाथ से छूटा ही जा रहा है। फरवरी के आरम्भ से अब तक दो-तीन दिन रोगग्रस्त होना चार-पांच दिन ठीक रहना, यही क्रम चल रहा है मेरे जीवन में।
रोग से पीड़ित और त्रस्त हो मैंने कई बार कुछ लिखने का मन बनाया,
कितनी बार सोचा कि ऐसे तो बीमारी में बहुत समय व्यतीत हो जाएगा। लेकिन डॉयरी और पेन मेरे सिरहाने हिले-डुले बिना पड़े रहे। जब किसी प्रकार का कोई सृजन न हो सका तो मैं स्वयं से चिढ़ने और कुढ़ने लगा। ऐसी आत्मप्रवंचना में न जाने कब बचपन की यादों में चला गया,
पता ही नहीं चला।
मैं उत्तराखण्ड के पौड़ी जिले का रहनेवाला हूँ। आज से अट्ठाईस वर्ष पूर्व का गांव का जीवन कितना रमणीय और स्वाभाविक था। बीस परिवारों का अपना गांव कितना हरा-भरा, प्रसन्न,
समृद्ध और संतुष्ट था। संयुक्त परिवार के अनुसार एक घर में यदि पन्द्रह-बीस मनुष्य रहते होंगे तो बीस परिवारों में चार सौ लोग हुए। इसी प्रकार हरेक घर में दस-बारह मवेशी भी होंगे तो बीस घरों में दो, सवा दो सौ मवेशी भी होते थे। कुल मिलाकर छ:-सात सौ प्राणियों से एक गांव,
एक जीवन परिवेश प्राकृतिक रुप से संचालित था। ये केवल मेरे गांव का आकलन है। इसी प्रकार अन्य गांव भी हैं,
वहां भी वहां के परिवारों के अनुकूल मनुष्य और मवेशियों की उपस्थिति बनी रहती होगी। ऐसे में गढ़वाल का प्राकृतिक परिवेश वास्तविक जीवन के कितने अनुकूल था।
ऐसा नहीं था कि गांवों में तब वैज्ञानिक उपकरण और वस्तुएं नहीं थीं। रेडियो कई घरों में होते थे। उन्हें धनी समझा जाता था। टेलीविजन भी निकटस्थ बाजार में एकाध घरों में विद्यमान था। ऐसे ही एक बासंती सांझ को छुपम-छुपाई खेल के दौरान मुझे रेडियो पर बजनेवाला जानी दुश्मन फिल्म का गाना
(मेरे हाथों में पहना के चूड़ियां, कि दिल बंजारा ले गया, कि दिल बंजारा ले गया ले गया) सुनाई दिया। फिल्मी गानों में यह प्रथम गाना था, जिसे मैं इसके बोल और धुन के साथ सुनते हुए याद कर सका था। तब मुझे अपने जीवन में एक नया अनुभव हुआ था। एक ऐसा आभास हुआ, जिससे मेरा हरेक नया भाव-विचार,
प्रत्येक जीवन-व्यवहार प्रभावित होने वाला था।
अट्ठाईस वर्ष पूर्व का मेरा गांव कितना समर्थ था अपने प्राणियों को एक स्वस्थ और स्वछन्द जीवन प्रदान करने के लिए,
यह सोचकर आत्मा तिलमिलाने लगती है। तब गांव में जितने भी बच्चे, किशोर,
प्रौढ़वय लड़के-लड़कियां थीं,
सब मिलजुल कर कोई न कोई सामूहिक खेल खेला करते थे। दिनभर के कार्य निपटा कर, जरुरी विद्यालयी अध्ययन करने के उपरान्त सांझ के समय सभी गांव के मध्य स्थित बड़े मैदान में एकत्रित होते थे। पचास-साठ युवकों,
युवतियों, बच्चों और किशोरों का जमघट लगता था। हम लोग कभी पाला-पाला
(इसमें मैदान में दाएं-बाएं बीस-तीस चौकोर क्षेत्र और इनके मध्य सीधी रेखा खींचकर बनाया गया लम्बा क्षेत्र होता था,
सभी चौकोर क्षेत्रों में दल विशेष का एक-एक व्यक्ति खड़ा रहता था और बीचवाले क्षेत्र में दल विशेष का नेतृत्वकर्ता खड़ा होता था। दूसरे दल को इन चौकोर खानों में उपस्थित विरोधी दल के रक्षकों और सीधी रेखा में तैनात रक्षक नेतृत्वकर्ता से बचकर आगे बढ़ना होता था। यदि आगे बढ़ने के दौरान रक्षक दल का कोई सदस्य पालों में आगे बढ़ते दूसरे दल के किसी सदस्य को स्पर्श भी कर देता था तो वह खेल से बाहर हो जाता था। दोनों दल बारी-बारी से रक्षक और आगे बढ़नेवाले दल की भूमिका निभाते थे), खो-खो इत्यादि खेल खेलते तो कभी छुपम-छुपाई। गांव की छुपम-छुपाई में छुपने का क्षेत्र एक किलोमीटर तक होता था। छुपनेवाले कभी गांव के इस किनारे तो कभी उस किनारे छुपते थे। ढूंढनेवाले को बहुत श्रम करना होता था छुपे हुओं को ढूंढने के लिए। लेकिन इस भागम-भाग और दौड़भाग में अत्यन्त आनन्द आता था।
होली तो गांव में होलिका दहन और रंग लगानेवाले दिन से एक माह पूर्व प्रारम्भ हो जाती थी। गांव के केवल किशोर और प्रौढ़वय लड़के एक महीने तक दूर-दराज के गांवों में रात-रातभर होली खेलते थे। चन्द्र किरणों से सजीं रातों में होली खेलने दूरस्थ गांवों में जाना कितना पावन था जीवन के लिए! इस दौरान वे अनेक वाद्ययन्त्रों से सुसज्जित हो गांव-गांव जाते, प्रत्येक घर-आंगन में गोला बनाकर होली के मंगल गीत गाते। सबसे सुरीला लड़का होली-गीत की पहली पंक्ति गाता तो बाकी लड़के उसकी गायी हुई पंक्ति को सामूहिक स्वर में दोहराते। वाद्ययन्त्र गीतों के सुर में खनकते। गीत के अन्तरों में अनुभव होता मंगलकामनाओं का परिलक्षण व्यवहृत होता हुआ प्रतीत होने लगता। होली खेलने गए दल के सदस्य होलीगीतों और वाद्ययन्त्रों का ऐसा समामेलन प्रस्तुत करते कि देखने-सुननेवालों का तांता लग जाता। प्रसन्न होकर लोग अपने सामर्थ्य अनुसार होली खेलने आए दल को होलीदान के रुप में कुछ न कुछ रुपए-पैसे अवश्य देते थे। इस प्रकार गांव-विशेष के प्रत्येक घर में होली गीतों को गा-गाकर आधी रात के बाद दल-विशेष अपने गांव वापस लौट आता। होलीगीत गानेवाले सभी गांवों के दल एक रात में कम से कम आठ-दस गांवों में घूमकर होली गीत गाते और मुद्रा अर्जित करके लाते। होलिका दहन से पूर्व दल अपने गांव के प्रत्येक घर में घूमकर वही गीत गाते,
जो वे एक माह पूर्व से कई गांवों में जा-जा कर गा चुके होते। रात्रि को होलिका दहन होता। सारा गांव, सब लोग वहां एकत्रित होते। सूखी लकड़ियों के ढेर के मध्य स्थित होलिका के दहनोपरान्त सब लड़के रातभर वहीं रुकते। सुबह होते ही वे सर्वप्रथम एक-दूसरे के मुंह पर जलाई गई होलिका की राख रगड़ते। इसके बाद शुरु होता रंग लगाने का कार्यक्रम। भाभियां देवरों की रंग-मार से बचने के लिए दूर-दूर जंगल-खेतों तक भागतीं-छुपतीं कि कोई उन्हें रंग न लगा पावै। पर देवर कब माननेवाले। वे उन्हें वहीं जाकर रंग लगा आते। संध्या समय गांव-गांव जाकर, होली गीत गाकर एकत्रित मुद्रा से सामूहिक भोज और होली मिलन समारोह का आयोजन होता। मुझे अच्छी तरह से याद है एक वर्ष हमारे गांव के होली दल ने 1 हजार रुपए कमाए थे।
इसके अतिरिक्त भी अनेक ऐसी महत्वपूर्ण बचपन की यादें हैं, जिन्हें याद करते हुए आज की अपनी स्थिति से अत्यन्त
घृणा होने लगती है। ऐसा अनुभव होता है कि उस जीवन की तुलना में यह बनावटी और अप्राकृतिक
जीवन कितना मृत है!
रोगावस्था में मस्तिष्क इतना ही श्रम कर पाया, उंगलियां इतनी ही सशक्त हो पाईं कि (गांव, बचपन, होली) संस्मरण सम्बन्धी आधे-अधूर उद्गार लिखे जा सके।
बाकी फिर कभी।